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शनिवार, 7 नवंबर 2009

महाकाल स्तवन

महाकाल स्तवन

असंभवं संभव-कर्त्तुमुघतं, प्रचण्ड-झंझावृतिरोधसक्षमम् । युगस्य निर्माणकृते समुघतं, परं महाकालममुं नमाम्यहम् ।।
यदा धरायामशांतिः प्रवृद्घा, तदा च तस्यां शांतिं प्रवर्धितुम् ।
विनिर्मितं शांतिकुंजाख्य-तीर्थकं, परं महाकालममुं नमाम्यहम् ।।
अनाघनन्तं परमं महीयसं, विभोः स्वरुपं परिचाययन्मुहुः ।
यगगानुरुपं च पंथं व्यदर्शयत्, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।
उपेक्षिता यज्ञ महादिकाः क्रियाः, विलुप्तप्राय खलु सान्ध्यमाहिकम् ।
समुद्धृतं येन जगद्धिताय वै, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।
तिरस्कृतं विस्मडतमप्युपेक्षितं, आरोग्यवहं यजन प्रचारितुंम् ।
कलौ कृतं यो रचितुं समघतः, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।
तपः कृतं येन जगद्घिताय, विभीषिकायाश्च जगन्नु रक्षितुम ।
समुज्ज्वला यस्य भविष्य-घोषणा, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।
मृदुहृदारं हृदयं नु यस्य यत्, तथैव तीक्ष्णं गहनं च चिन्तनम् ।
ऋषेश्चरित्रं परमं पवित्रकं, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।
जनेष देवत्ववृतिं प्रवर्धितुं, वियद् धरायाच्च विधातुमक्षयम् ।
युगस्य निर्माणकृता च योजना, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।
यः पठेच्चिन्त येच्चापि, महाकाल-स्वरुपकम् । लभेत परमां प्रीति, महाकाल कृपादृशा ।।

महाकाल स्तुति (पघानुवाद)

असंभव पराक्रम के हेतु तत्पर, विध्वंस का जो करता दलन है ।
नव सृजन पुण्य संकल्प जिसका, ऐसे महाकाल को नित नमन है ।।
भू पर भरी भ्रांति की आग के बीच, जो शक्ति के तत्व करता चयन है ।
विकसित किए शांति कुंजादि युग तीर्थ, ऐसे महाकाल को नित नमन है ।।
अनादि अनुपम, अश्वर, अगोचर, जिनका सभी भाँति अनुभव कठिन है ।
यद शक्ति का बोध सबको कराया, ऐसे महाकाल को नित नमन है ।।
विस्मृत उपेक्षित पड़ी साधना का, जिनने किया जागरण उन्नयन है ।
घर-घर प्रतिष्ठित हुई वेदमाता, ऐसे महाकाल को नित नमन है ।।
यज्ञीय विज्ञान, यज्ञीय जीवन, जो सृष्टि पोषक दिव्याचरण है ।
उसको उबारा प्रतिष्ठित बनाया, ऐसे महाकाल को नित नमन है ।।
मनुष्यता के दुःख दूर करने, तपकर कमाया परम पुण्य धन है ।
उज्जवल भविष्यत् की घोषणा की, ऐसे महाकाल को नित नमन है ।।
अनीति भंजक शुभ कोप जिनका, शुभ ज्ञानयुत श्रेष्ठ चिंतन गहन है ।
ऋषिकल्प जीवन जिनका परिष्कृत, ऐसे महाकाल को नित नमन है ।।
देवत्व मानव मन में जगाकर, संकल्प भू पर अमरपपुर सृजन है ।
युग की सृजन योजना के प्रणेता, ऐसे महाकाल को नित नमन है ।।
महाकाल की प्रेरणा, श्रद्घायुत चित लाय । नर पावे सदगति परम्, त्रिवध ताप मिट जाय ।।

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